स्वर ज्ञान

आज आपको योेग साधन की जानकारी दे रहे हैं। साधक शरीर के संतुलन को ठीक करने के लिए पदमासन आदि आसनों का सहारा लेता है। परन्तु प्राण के संतुलन को सिथर करने के लिए स्वर में शब्द ब्रह्रा का आसरा लिया जाता है। शरीर में लाखोंं करोड़ों नाडि़याँ हैं उनमें भी बहुत सी ग्रनिथयाँ पड़ी है उनको आप न तो हाथ से खोल सकते हैं और न ही किसी यंत्र से खोल सकते हैं जब तक जड़ चेतन की ग्रनिथ खुलेगी नहीं तब तक अंदर जाने का रास्ता मिलने नहीं जैसे धागे से गाँठ लगी हो तो सुर्इ से कपड़ा नहीं सिला जा सकता। इसी प्रकार इन सभी जड़ चेतन की ग्रनिथयों को खोलकर अन्दर प्रवेश उसी की कृपा से हो सकता है जिसने इस शरीर एवं जीवन का निर्माण किया है। जब साधक को साधन करते-करते यदि रास्ते में आगे जाना असंभव हो जाये तो शाम को हल्का भोजन करके सो जाये सुबह 3 बजे ब्रह्रामुहर्त मेें उठकर साधन में बैठकर पहले अपने सवर को देखें। दायां तथा बायां स्वर से सांसरिक कार्य सिद्ध होते हैं मोक्षदायिनी कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। मोक्षदायिनी कर्म सुष्मुना में सिद्ध होते हैं इसलिए साधक शब्द के साथ सुरति जोड़कर नाभि से दोनों स्वरों के बीच में होकर सुष्मना स्वर से ज्ञान चक्र तक अभ्यास करें। इंगला पिंगला रूवर चाहे बंद हो या खुले हों किन्तु उसे अपने स्वर के अभ्याय को सुष्मना के द्वारा निरन्तर बनाये रखना चाहिए। यदि साधक को साधन करते-करते खांसी आती है तो पीछे से गांठे खुलना शुरू हो जाती है ऐसे ही यदि छंीक आती है तो उसके पीछे की रीढ़ की हडडी की गांठे कड़क-कड़क खुलती रहती है जिससे साधक को साधन करने में योग बल मिल जाता हैं जो स्वर संकीर्ण अवस्था में चल रहा था वह अब खुलकर चलने लगता है यदि साधन करते-करते साधक मेेंं सुष्मना का प्रभाव बढ़ जाये तो जैसे बाहर मूसलाधार वर्षा हो जाती है तथा उसमें यातायात को भी जगह-जगह पर रूकना पड़ता है। इस प्रकार साधक के ब्रह्रााण्ड में चारों तरफ से अगर ब्रह्रा वर्षा बरसने लगती है तो जीवन के मन, बुद्धि, चित्त का पापरूपी मैल धुलकर साफ शुद्ध होने लगता है तो साधक शून्य अवस्था की ओर बढ़ते रहता है, फिर शून्य अवस्था में पहुंचकर सिथत हो जाता है तथा परमआनन्त को प्राप्त करता है। जब साधक का स्वर बदलने लगता है तब ब्रह्राा वर्षा का प्रभाव कुछ कम होने लगता है तो साधक फिर जाग्रत अवस्था में आ जाता है, फिर उसको शरीर में भूख-प्यास लगना शुरू होता है तो साधक को इस अवस्था में भोजन खाने से पहले अपने स्वर को देख लेना चाहिए क्योंकि दांया स्वर सूर्य छेदन होता है तथा इसमें भोजन जल्दी हजम होता है यदि पानी पीना हो तो बांये स्वर से पीना चाहिए। बांये स्वर से मित्रों सें मिलना आदि तथा शुभ कर्म सिद्ध होते हैं। इस प्रकार ऐसी अवस्थाएं साधक में साधन करने पर आती रहती हैंं। सुष्मना स्वर में भोजन करना, लड़ार्इ-झगड़ा करना आदि उचित नहीं हैं।
उपरोक्त सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म योग साधन का केवल समय के तत्वदर्शी संतो के मार्गदर्शन में ही अभ्यास करें।

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