सतगुरू की महिमा

आज सभी प्रेमी पाठकों के लिए ”सदगुरू की महिमा” का वर्णन कर रहा हूँ हलांकि ”सदगुरू की महिमा” अवर्णनीय एवं अकथनीय है तथा ”सदगुरू की महिमा” को शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है किन्तु उन्होंने मेरे योग साधन में जो प्रेरणा एवं अनुभव मुझे दिया है उसे मैं आप तक पहुंचा रहा हूँ ‘गुरू में ‘गु माने महामाया का ‘मोह अंधकार तथा ‘रू माने है ‘रूहानी प्रकाश उसी ‘रूह के हम अंशी ‘आत्मारूपी रूह है आत्मा के नाते परमात्मा भी गुरू हैं। ‘गुरू निष्पाप हैं तथा गुरू के दर्शन से ही पतित पावन होते है। ‘गुरू के प्रकाश से ही अनन्त सृषिटयाँ प्रकाशित हो रही हैं। जिस प्रकार रात्रि में अंधकार को तो सूर्य दूर कर देता है किन्तु मानव के अन्दर मोहरूपी रात्रि के अंधकार को केवल गुरू का रूहानी प्रकार ही दूर करने मे समर्थ हैं। मोहरूपी रात्रि में सभी जीव प्राणी सोये हैं जाग्रत अवस्था में सब जीव प्राणी जागे हैं किन्तु मोहरूपी रात्रि से जागे नहीं है जिस प्रकार निद्रा तीन प्रकार की होती हैं जैसे एक ‘रात्रि की निद्रा’ है जिससे वह स्वयं भी जाग सकता है या बच्चा भी जाग सकता है। दूसरी ‘मोह निद्रा’ होती है जिससे निवृतित मार्गी सन्त ही जाग सकते हैं तीसरी ‘योग निद्रा’ है। जिस प्रकार रात्रि के समाप्त हेाने पर तथा सूर्य के उदय होते समय प्रात: काल का समय होता है उसी प्रकार योग साधन करके जब जीव व ब्रह्रा का संयोग होता है तो सूक्ष्म रूप में ‘योग निद्रा’ का प्रभाव अनुभव में आता है जिसमें अलौकिक खेल देखने को मिलता है तथा निरन्तर योग साधन करते रहने पर योग निद्रा का सूक्ष्म प्रभाव भी समाप्त होकर जीव का ब्रह्रा में एकाकार हो जाता है।
शरीर साधन का धाम व मोक्ष का दरवाजा है। अत: शरीर न गुरू है और न ही शिष्य है। शरीर एक नश्वर है। शरीर के भीतर जीवात्मा है वह शिष्य है तथा निर्मोही ‘पूर्ण ब्रह्रा गुरू हैं मानव योनि सभी योनियों में सर्वश्रेष्ठ प्रधान योनि है इसमें योग साधन करके ”गुरू कृपा से साधक अपने अंदर अमृत, दया, प्रेम व पवित्र विवेक को प्राप्त कर सकता है। इस मानव शरीर के अन्दर ही जीवात्मा शिष्य तथा निर्मोही ‘पूर्ण ब्रह्रा गुरू दोनों रहते हैं। इसीलिए निर्मोही पूर्ण ब्रह्रा गुरू की प्रेरण साधक को अपने जीवन में पग-पग पर मिलती रहती है तभी साधक भूत, भविष्य एवं वर्तमान के रहस्य को जान जाता है तब गुरू के दर्शन से साधक का स्वार्थी जीवन नि:स्वार्थ बन जाता है।
‘गुरू’ की शकित सर्वव्याप्त है। इसका उदाहरण हम इस प्रकार दे रहे हैं कि जिस प्रकार एक धान के छिलके के अंदर चावल का दाना होता है यदि किसान उस धान को छिलके सहित बोयेगा तो उससे ही पौधा बनेगा यदि वह धान के छिलके को उतारकर चावल के दाने को बोयेगा तो वह पौधे के रूप में अंकुरित नहीं हो सकता है इसी प्रकार प्रकृति व पुरूष की रचना है तथा परम पुरूष जो गुरू स्वरूप हैं वे जड़ चेतन सब में व्याप्त हैं। इस प्रकार प्रकृति धान के छिलके की तरह है तथा पुरूष एक चावल के समान है तथा इस दोनों को परम पुरूष एक चावल के समान है। तथा इन दोनों को परम पुरूष शकित प्रदान कर रहे हैं। तभी सृषिट की रचना होती है पाठकगण मेरी बात भली प्रकार समझ गये होंगे। अत: मनुष्य जीवन में ही ‘गुरू’ ज्ञान प्राप्त करके आत्मारूपी रूह परमात्मा रूपी रूह के साथ मिल सकती है। यही सतगुरू की महिमा है।

Comments are closed