परमात्मा अनाम है

मैंने अपने योग साधन के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर परमात्मा को ”अनाम बताया है जितने भी धर्मग्रन्थ हैं सबमें ‘नमा की महिमा गायी गयी है। जब बच्चे का जन्म होता है तो नौ दस दिन में उसका नामकरण ब्राह्राण रखता है। इस नाम से वह समाज में जाना जाता है जबकि यह ‘नाम नश्वर शरीर का है तथा नश्वर शरीर को चलाने वाली आत्मा परमात्मा जो अन्दर में ही है तथा ‘अनाम है जबकि बच्चा नामकरण से पहले भी था तब उसका कोर्इ नाम नहीं था। जब ‘अव्यक्त परमात्मा संसार में व्यक्त होता है तो चेतन के बीज का जड़ प्रकृति के साथ संयोग होता है तो जड़ प्रकृति के बीज से पेड़ अंकुरित होता है तब संसार रूपी वृक्ष बनता है तथा परमात्मा सम्पूर्ण संसार रूपी वृृक्ष की शाखाओं में, पत्तों में, फलो में, फूलों में आदि यानि कण-2 में सर्वव्याप्त रहता है। इस प्रकार ‘जीवात्मा रूपी बीज में परमात्मा रूपी वृक्ष तथा ‘परमात्मा रूपी वृक्ष में जीवात्मा रूपी बीत रहता है जैसे बीज में पेड़ तथा पेड़ के फल मेें बीज होता आया हैं।
चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार की खाणी होती है जैसे उदभिज, स्वदेज, अण्डज व पिण्डज। उदभिज वे हैं जो धरती से पैदा होते हैं जैसे पेड़ पौधे आदि जबकि स्वदेज मैले में उत्पन्न होते हैं। ये भी देखते, चलते व घूमते हैं। अण्डज जैसे मछली, पक्षी आदि पिण्डज यानि पिण्ड से पैदा होने वाले जैसे-मनुष्य, पशु आदि। इस प्रकार परमात्मा ने जड़ चेतन की रचना की है जब अद्धैत परमात्मा द्धैत हो जाता है तभी संसार रूपी वृक्ष का जन्म होता है। ‘गु और ‘रू , ‘गु माने महामाया का मोह अंधकार रूपी बीज ‘रू माने परमात्मारूपी वृक्ष का ‘रूहानी प्रकाश। इस प्रकार महामाया प्रकृति के मोह अंधकार रूपी बीज में ‘रू यानि परमात्मा रूपी वृक्ष का रूहानी प्रकाश उजाला कर रहा है। जब दोनों के संयोग से संसार की उत्पतित होती है। इसी प्रकार प्रकृति प्राण रूपी बीज व आत्मा रूपी पुरूष में उत्पतित-प्रलयकाल, जन्म-मरण निरन्तर होता रहता है। जन्म-मरण से मुकित के लिए मनुष्य जन्म में जब ब्रह्रा ज्ञान की संत से प्रापित होती है तब साधक-साधन करके ब्रह्रा अगिन को प्रकट करके प्रकृति रूपी बीज को जलाकर निर्बीज करता है तभी जीवन मुकित होती है। जब तक बीज का निर्बीज नहीं होगा तब तक बेबस जन्म बेबस ‘मरण होता रहेगा। उत्पतित भी हो गयी और प्रलयकाल भी हो गया पर ‘नाम की कोइ्र चर्चा नहीं आयी। विश्व धर्म ग्रन्थों में भी केवल ज्ञान की चर्चा है। अन्नत प्राणों को चलाने वाला ‘र्इश्वर सबके स्वर में हैं। ‘र्इश्वर की आवाज ‘शब्द है जब बाहर से श्वांस अन्दर लेते हैं तो दुर्गन्ध-सुगन्ध की पहचान ‘शब्द से ही करते हैं। जब श्वांस अन्दर बाहर निरन्तर चलता है तो इस शब्द के स्पर्श से ही ऊर्जा पैदा होती है। इस ऊर्जा के प्रकाश से सूर्य, चन्द्रमा तथा तारामण्डल आदि सभी प्रकाशित हो रहे हैं तथा सबके मुख मण्डल में ऊर्जा के प्रकाश की ही चमक है। इस ऊर्जा के वाá प्रकाश को तो हम इन आँखों से देख सकते हैं लेकिन अविनाशी ब्रह्रा के प्रकाश को इन आँखों से नहीं देख सकते हैं। हमारे वेदों में ‘उन्नयन संस्कार का वर्णन किया गया है जिसमें ‘भर्गोज्योति का साक्षात दर्शन होता है तभी मानव का मोह अंधकार दूर होता हे। हमारे चारों वेदों में भी ज्ञान की चर्चा की गर्इ है जैसे ऋग्वेद में भगोर्ं ज्योति, यजुर्वेद में परमात्मो के अध्यात्म शब्द का ‘सुमिरण, सामवेद में संगीत, तथा अथर्ववेद में अमृत।
अत: पाठकगण इस बात पर विशेष ध्यान दें कि परमात्मा ”अनाम है। परमात्मा के जोद नाम की चर्चा शास्त्रों में मिलती है वे सभी गुणवाचक नाम हैं। परमात्मा के ‘शब्द की आवाज श्वांस में स्वत: होने वाला ‘अजपा जाप है। वह सोते-जागते, उठते, बैठते निरन्तर चलता है। ‘सोह शब्द की जो चर्चा शास्त्रों में वर्णित है यह भी गुणवाचक तथा शाबिदके है जबकि परमात्मा के शब्द की आवाज मनबुद्धि से परे सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म तथा गोपनीय से भी अतिगोपनीय है जो श्रद्धावान पक्का साधक केवल परमार्थ के लिए ही कार्य करता है उसके योग साधन में अनुभव में वह तब आता है जब वह शब्द के साथ सुरति जोड़कर साधन करता है। इस प्रकार परमात्मा का ‘शब्द ही परमात्मा की आवाज है जो अवर्णनीय एवं अतुलनीय तथा केवल ‘अनुभव का विषय है जैसे कि कहा गया है-
शब्द बिना सुरति अंधियारी, कहो कहां को जाय।
द्वार न पावे शब्द का, फिर-फिर भटकाखाय।।
श्वांस-श्वांस सुमिरण करो, वृथा श्वांस ना खोर्इ।
ना जाने इस श्वांस का, फिर आवन होर्इ ना होर्इ।।
श्वांस सफल सो जानिये, जो सुमिरण में जाय।
और श्वांस यों ही गये, कर-कर बहुत उपाय।।

इस प्रकार साधक के साधन में इस ”अनाम शब्द की आवाज के साथ सुरति लगती है फिर वह समाधि में पहुंचकर परमानन्द को प्राप्त करता है। यही शून्य अवस्था है।
समाज में लोग कहते हैं कि निराकार परमात्मा साकार नहीं हो सकता है यदि निराकार परमात्मा साकार नहीं होता तो उसका कोर्इ लाभ भी नहीं होता। निराकार परमात्मा ऐसे है जैसे बीज अंकुरित होकर वृक्ष बनता है तथा नाना प्रकार के स्वादिष्ट फल लोगों को खाने के लिए मिलते हैं उसी प्रकार जब निराकार परमात्मा हमारे जीवन में साकार होता है तो उसका अमृत, दया व निस्वार्थ पे्रम साधक के साधन में प्रत्यक्ष अनुभव में आता है तो उससे वह मृत्यु रोग को समाप्त करके सनातन सुख-शानित को प्राप्त करता है तथा जीते जी में वह जीवनमुक्त हो जाता है।
‘शब्द के साथ सुरति जोड़कर योग साधन करने वाला साधक जब परिपक्व अवस्था में पहुंच जाता है तो इस अवस्था में वह जड़ प्रकृति के तत्वों को अलग देखता है तथा अविनाशी आत्म तत्व व परमात्मा तत्व को पृथक-पृथक देखता है। यही सच्चे अथोर्ं में ”अध्यात्म ज्ञान कहलाता है। हम परमात्मा तत्व का, जो अवर्णनीय एवं अतुलनीय है उनके स्वरूप का अपने योग साधन के अनुभव के आधार पर वर्णन करते हैं। परमात्मा का स्वरूप अनन्त शकितयों से युक्त एवं अतिसुन्दर ”श्यामलवर्ण है। जब वह हमारे चक्र में अनुभव में आता है तो वह महाशकित उसी प्रकार साधक को अपनी ओर आकर्षित करती है जिस प्रकार हाइवोल्टेज की बिजली आदमी को अपनी ओर खिंचती है। इस समय साधक शून्य अवस्था में पहुंच जाता है तथा इस अवस्था मे परमात्मा का द्वैत स्वरूप पुन: अद्वैत हो जाता है। हम परमात्मा के अंशी उनके आत्मा रूपी ‘रूहानी पुत्र हैं। मनुष्य जन्म हूमें अपने परमपिता से मिलने के लिए ही मिलता है इसलिए मनुष्य योनि कर्म प्रधान योनि हे। इस योनि में मनुष्य सकल पदार्थ पा सकता है। यह स्वयं उस पर निर्भर करता है।

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